कोटद्वार : उत्तराखण्डियों के लिए कुछ-कुछ दादा साहेब फाल्के और के0 एल0 सहगल का सा दर्जा लिए चन्द्र सिंह राही जी का जन्म 28 मार्च सन् 1942 को जनपद पौड़ी गढ़वाल के गिंवाली गांव, पट्टी मौंदाड़स्यूं, उत्तराखण्ड में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री दिलबर सिंह नेगी तथा मां का नाम सुंदरा देवी था। निसंदेह उनकी गायकी को उत्तराखण्ड की लोकगायकी के आधार स्तम्भ के रूप में देखा जा सकता है। उनके सुरों में यहां का लोक बोलता था। अगर कहा जाय कि उनकी गायकी यहां के लोक की प्रतिनिधि गायकी थी तो गलत न होगा। उनके गायन में यहां का लोक पूर्ण रूप से समाहित रहता। यद्यपि उन्होने संगीत की शिक्षा ली थी लेकिन शास्त्रीयता उनके गायन में कभी हावी नहीं रही। शायद इसीलिए लोक में उनकी ग्राह्यता बहुत अधिक थी।
उत्तराखण्ड के लोकगीतों के मौलिक कण्ठ थे राही और उस मौलिकता को ताजिंदगी बचाए रखने में सफल रहे। लोक की मौलिकता से छेड़-छाड़ नहीं की, ब्यावसायिक दबाओं के बावजूद दांए-बांए नहीं भटके। वे लोकगीतों को जीते थे। वे आवाज की ताकत पर अपने श्रोताओं के दिलों में राज करते रहे। उनके गायन की अपनी शैली थी। चौबीस कैरेट का फोक गाने वाले अपनी शैली के अप्रतिम कलाकार। जरा ठन्डू चलदी, जरा मठ्ठु चलदी, मेरी चदरी छुट्टी ग्ये पिछनै, जरा मठ्ठू चलदी के उलट कुछ जल्दी चले गए, चदरिया पीछे छोड़ दी।
उनका कुछ जल्दी चले जाना पहाड़ के लोकसंगीत के लिए कभी न भर पाने वाला खालीपन है। लेकिन राही ने लोक में जो लहरें पैदा की हैं वो उठती रहेंगी। उन्हें कोई नहीं मिटा सकता। लहराता रहेगा पूरा पहाड़ उन लहरों में। वे याद किये जाते रहेंगे…. भाना हे रंगीली भाना दुरु ऐजै बांज कटण, पार बांणा कु छई घसेरी, रूपैकी खजानी भग्यानी कनि छए, धार मा सी जून दिखेंदी जनि छई, तिलै धारु बोला मधुलि हिराहिर मधुलि, सौली घुराघुर्र दगड़िया, हिल्मा चांदी कु बटीणा…रैंद दिलमा तुमारी रटीणा, सात समुन्दर पार च जाणा ब्वे, जाज म जौलू कि ना, पार बौणा कु छई घसेरी, मालू रे तू मालू नि काटी, हिट बलदा सरासरी रे, तिन हाळमा जाणा रे, जरा ठन्डू चलदी जरा मठ्ठु चलदी, मेरी चदरी छुट्टी ग्ये पिछनै आदि अपने कालजयी गीतों के लिए।
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